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राजस्थान में किसान तथा आदिवासी आन्दोलन

राजस्थान का इतिहास केवल राजा-महाराजाओं के शौर्य और किलों की भव्यता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आमजन के संघर्ष, त्याग और अधिकारों की लड़ाई का भी साक्षी रहा है। 19वीं और 20वीं शताब्दी में, रियासतों के जागीरदारों, ठिकानों और ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध किसानों और आदिवासियों ने संगठित होकर कई शक्तिशाली आन्दोलन किए। इन आन्दोलनों ने न केवल राजस्थान में सामाजिक और राजनीतिक चेतना का संचार किया, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को भी एक नई दिशा प्रदान की।

इन आन्दोलनों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है:

  1. किसान आन्दोलन
  2. आदिवासी आन्दोलन

1. राजस्थान के प्रमुख किसान आन्दोलन

किसानों के आन्दोलन मुख्य रूप से अत्यधिक भू-राजस्व, दर्जनों प्रकार की लाग-बाग (कर), बेगार (बिना मजदूरी के काम) और जागीरदारों के अत्याचारों के विरुद्ध थे।

(क) बिजोलिया किसान आन्दोलन (1897-1941)

यह राजस्थान का ही नहीं, बल्कि भारत का सबसे लम्बा चलने वाला (लगभग 44 वर्ष) और पूर्णतः अहिंसक आन्दोलन था। इसने अन्य सभी आन्दोलनों को प्रेरित किया।

  • आन्दोलन के मुख्य कारण:
    • किसानों से 84 विभिन्न प्रकार के कर (लागत) वसूले जाते थे।
    • अत्यधिक भू-राजस्व की दरें।
    • ‘चंवरी कर’ (1903 में, ठिकानेदार कृष्ण सिंह द्वारा बेटी के विवाह पर ₹5 का कर)।
    • ‘तलवार-बंधाई कर’ (1906 में, नए जागीरदार पृथ्वी सिंह द्वारा अपनी जागीरदारी को मान्यता दिलाने हेतु मेवाड़ राज्य को दिए जाने वाले शुल्क का बोझ किसानों पर डालना)।
    • बेगार प्रथा और लाटा-कूंता प्रणाली में भ्रष्टाचार।
  • आन्दोलन के चरण:
    1. प्रथम चरण (1897-1915): इसका नेतृत्व स्थानीय नेताओं जैसे साधु सीताराम दास, नानजी पटेल और ठाकरी पटेल ने किया। यह चरण मुख्यतः याचिकाओं और ज्ञापनों तक सीमित रहा।
    2. द्वितीय चरण (1916-1923): यह चरण सबसे महत्वपूर्ण था जब 1916 में विजय सिंह पथिक (भूप सिंह) ने इसका नेतृत्व संभाला। पथिक ने ‘ऊपरमाल पंच बोर्ड’ की स्थापना की और मन्ना पटेल को इसका अध्यक्ष बनाया। उन्होंने ‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र (कानपुर से प्रकाशित, गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित) के माध्यम से बिजोलिया की समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया।
    3. तृतीय चरण (1923-1941): इस चरण में नेतृत्व माणिक्यलाल वर्मा, जमनालाल बजाज और हरिभाऊ उपाध्याय के हाथों में रहा। लम्बे संघर्ष के बाद 1941 में मेवाड़ के प्रधानमंत्री सर टी. विजय राघवाचार्य के प्रयासों से किसानों और ठिकाने के बीच समझौता हुआ और यह ऐतिहासिक आन्दोलन समाप्त हुआ।

(ख) बेगूं किसान आन्दोलन (1921-1925)

बिजोलिया से प्रेरित होकर मेवाड़ रियासत के बेगूं ठिकाने के किसानों ने भी आन्दोलन शुरू किया।

  • नेतृत्व: इसका नेतृत्व रामनारायण चौधरी ने किया।
  • कारण: बिजोलिया के समान ही, अत्यधिक लगान और लाग-बाग।
  • मुख्य घटना: 13 जुलाई, 1923 को गोविन्दपुरा गाँव में किसान शांतिपूर्ण सभा कर रहे थे, जिस पर ठिकाने की सेना ने गोलियाँ चला दीं। इस घटना में रूपाजी और कृपाजी धाकड़ नामक दो किसान शहीद हो गए। इस हत्याकांड की जाँच के लिए ‘ट्रेंच कमीशन’ का गठन किया गया था, जिसने इसे उचित ठहराया। बाद में विजय सिंह पथिक को भी इस आन्दोलन के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया।

(ग) शेखावाटी किसान आन्दोलन (1922-1947)

यह आन्दोलन जयपुर रियासत के सीकर, खेतड़ी, नवलगढ़ आदि ठिकानों में जाट किसानों द्वारा चलाया गया।

  • नेतृत्व: ठाकुर देशराज, रामनारायण चौधरी, और सरदार हरलाल सिंह इसके प्रमुख नेता थे।
  • कारण: सामाजिक भेदभाव, भूमि पर अधिकारों की कमी और लगान की ऊंची दरें।
  • मुख्य घटनाएँ:
    • कटराथल सम्मेलन (25 अप्रैल, 1934): सिहोट के ठाकुर द्वारा महिलाओं के साथ किए गए दुर्व्यवहार के विरोध में किशोरी देवी के नेतृत्व में लगभग 10,000 जाट महिलाओं ने एक विशाल सम्मेलन किया। इस सम्मेलन की मुख्य वक्ता उत्तमा देवी थीं।
    • कूदन गाँव हत्याकांड (अप्रैल 1935): लगान वसूली के विरोध में हुए संघर्ष में पुलिस ने गोलियाँ चलाईं, जिसमें कई किसान मारे गए। इस घटना की गूंज ब्रिटिश संसद तक सुनाई दी थी।
  • विशेषता: इस आन्दोलन में ‘जाट महासभा’ जैसी सामाजिक संस्थाओं ने राजनीतिक चेतना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(घ) अलवर किसान आन्दोलन और नीमूचाणा हत्याकांड (1921-1925)

अलवर रियासत में यह आन्दोलन जंगली सूअरों द्वारा फसल बर्बाद करने और लगान की दरों में भारी वृद्धि के खिलाफ शुरू हुआ।

  • कारण: महाराजा जयसिंह द्वारा लगान की दरों में 50% तक की वृद्धि करना।
  • नीमूचाणा हत्याकांड (14 मई, 1925): अलवर के नीमूचाणा गाँव में लगान वृद्धि के विरोध में किसान एक सभा कर रहे थे। राज्य की सेना ने सभा को चारों ओर से घेरकर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाईं, जिसमें सैकड़ों किसान मारे गए।
  • प्रतिक्रिया: महात्मा गांधी ने इस हत्याकांड को “जलियाँवाला बाग से भी वीभत्स (Double Dastardly)” बताया और इसे ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित किया। इस घटना ने पूरे देश का ध्यान खींचा।

2. राजस्थान के प्रमुख आदिवासी आन्दोलन

आदिवासी आन्दोलन मुख्यतः जल, जंगल और जमीन पर अपने पारंपरिक अधिकारों के हनन, राज्यों और ब्रिटिश सरकार द्वारा शोषण तथा सामाजिक सुधारों से प्रेरित थे।

(क) भगत आन्दोलन (1911 से प्रारंभ)

यह भील जनजाति का एक सामाजिक-आर्थिक और धार्मिक सुधार आन्दोलन था, जिसने बाद में राजनीतिक रूप ले लिया।

  • नेतृत्व: इस आन्दोलन के प्रणेता गोविन्द गुरु थे, जिनका जन्म एक बंजारा परिवार में हुआ था।
  • उद्देश्य: भीलों में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों (जैसे शराबखोरी, अंधविश्वास) को दूर करना, उन्हें हिन्दू धर्म की मुख्य धारा में बनाए रखना और उनमें आत्म-सम्मान की भावना जगाना।
  • संगठन: गोविन्द गुरु ने 1883 में ‘सम्प सभा’ की स्थापना की, जिसका अर्थ है ‘आपसी प्रेम और एकता’। वे धूनी स्थापित कर और ध्वजा लगाकर भीलों को संगठित करते थे।
  • मानगढ़ हत्याकांड (17 नवंबर, 1913): हजारों भील गोविन्द गुरु के नेतृत्व में मानगढ़ की पहाड़ी (बांसवाड़ा) पर एकत्रित हुए थे। ब्रिटिश और रियासती सेनाओं ने पहाड़ी को घेरकर उन पर गोलियाँ बरसाईं, जिसमें अनुमानतः 1500 से अधिक भील मारे गए। इस घटना को “राजस्थान का जलियाँवाला बाग” कहा जाता है। गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया गया।

(ख) एकी आन्दोलन (1921 से प्रारंभ)

यह आन्दोलन भील और गरासिया आदिवासियों द्वारा मेवाड़ और सिरोही रियासतों में चलाया गया।

  • नेतृत्व: इसका नेतृत्व मोतीलाल तेजावत ने किया। तेजावत को आदिवासियों का ‘मसीहा’ और ‘बावजी’ कहा जाता है।
  • उद्देश्य: भीलों को जागीरदारों के शोषण, भारी लगान और बेगार से मुक्त कराना। ‘एकी’ का अर्थ है एकता।
  • मुख्य घटनाएँ:
    • आन्दोलन की शुरुआत चित्तौड़गढ़ के मातृकुण्डिया नामक स्थान से हुई, जिसे ‘राजस्थान का हरिद्वार’ भी कहते हैं।
    • तेजावत ने 21 मांगों का एक पत्र तैयार किया, जिसे ‘मेवाड़ की पुकार’ कहा जाता है।
    • नीमड़ा हत्याकांड (7 मार्च, 1922): विजयनगर (गुजरात) के नीमड़ा गाँव में सभा कर रहे भीलों पर मेवाड़ भील कोर ने फायरिंग की, जिसमें लगभग 1200 भील मारे गए।
    • लम्बे समय तक भूमिगत रहने के बाद गांधीजी की सलाह पर तेजावत ने आत्मसमर्पण कर दिया।

(ग) मीणा आन्दोलन (1924-1952)

यह आन्दोलन अपने अस्तित्व और सम्मान की रक्षा के लिए मीणा जनजाति द्वारा किया गया एक लंबा और संगठित संघर्ष था।

  • कारण: ब्रिटिश सरकार द्वारा 1924 में लागू किया गया ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ (आपराधिक जनजाति अधिनियम) और जयपुर रियासत द्वारा 1930 में बनाया गया ‘जरायम पेशा कानून’। इन कानूनों के तहत मीणा जनजाति को जन्मजात अपराधी मान लिया गया और प्रत्येक वयस्क पुरुष और महिला को प्रतिदिन पास के पुलिस थाने में हाजिरी देनी पड़ती थी।
  • संगठन और नेतृत्व:
    • इस कानून के विरुद्ध मीणा समाज को संगठित करने के लिए मुनि मगन सागर की अध्यक्षता में ‘मीणा सुधार समिति’ का गठन किया गया।
    • अन्य प्रमुख नेताओं में बंशीधर शर्मा, लक्ष्मीनारायण झरवाल और राजेन्द्र कुमार ‘अज्ञात’ शामिल थे।
  • प्रमुख घटनाएँ:
    • 1944 में नीम का थाना में एक विशाल सम्मेलन हुआ, जिसमें ‘मीणा सुधार समिति’ का गठन किया गया।
    • 1946 में बागावास में एक और सम्मेलन हुआ, जिसमें मीणाओं ने चौकीदारी के काम से सामूहिक इस्तीफा दे दिया और इस दिन को ‘मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया।
  • परिणाम: लंबे संघर्ष के बाद भारत सरकार ने 1952 में इस बदनाम ‘जरायम पेशा कानून’ को निरस्त कर दिया, जिसके बाद यह आन्दोलन समाप्त हुआ।

इन किसान और आदिवासी आन्दोलनों ने राजस्थान के सामंती ढाँचे पर गहरी चोट की और प्रजा में अपने अधिकारों के प्रति अभूतपूर्व जागृति पैदा की। इन संघर्षों ने ही भविष्य में प्रजामंडल आन्दोलनों और राजस्थान के एकीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की।

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