20वीं सदी के तीसरे और चौथे दशक में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। जहाँ एक ओर ब्रिटिश भारत में कांग्रेस के नेतृत्व में ‘पूर्ण स्वराज्य’ की मांग जोर पकड़ रही थी, वहीं दूसरी ओर भारत की 560 से अधिक देसी रियासतें अभी भी राजा-महाराजाओं के निरंकुश शासन और ब्रिटिश संरक्षण में थीं। इन रियासतों में राजनीतिक अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं और उत्तरदायी शासन का पूर्ण अभाव था।
इसी पृष्ठभूमि में, रियासतों की जनता को जागृत करने, उनमें राजनीतिक चेतना का प्रसार करने तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए जो संगठित आन्दोलन हुए, उन्हें ‘प्रजामण्डल आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। ‘प्रजामण्डल’ का शाब्दिक अर्थ है ‘प्रजा का संगठन’। इन आन्दोलनों का उद्देश्य महाराजाओं के शासन को समाप्त करना नहीं, बल्कि उनके संरक्षण में एक ऐसी सरकार की स्थापना करना था जो जनता के प्रति उत्तरदायी हो।
1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन, जिसकी अध्यक्षता सुभाष चंद्र बोस ने की थी, में एक प्रस्ताव पारित कर रियासतों के आन्दोलनों को समर्थन देने की घोषणा की गई। इस घटना ने राजस्थान के प्रजामण्डल आन्दोलनों को एक नई ऊर्जा और दिशा प्रदान की।
प्रजामण्डल आन्दोलन के उद्देश्य
राजस्थान की विभिन्न रियासतों में स्थापित प्रजामण्डलों के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे:
- उत्तरदायी शासन की स्थापना: महाराजाओं के निरंकुश शासन के स्थान पर एक ऐसी सरकार का गठन करना जिसमें जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि शामिल हों।
- नागरिक अधिकारों की प्राप्ति: रियासतों की प्रजा को भाषण देने, सभा करने, संगठन बनाने और लिखने की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार दिलाना।
- सामंती अत्याचारों का विरोध: जागीरदारों और ठिकानेदारों द्वारा किए जा रहे शोषण, बेगार प्रथा (बिना मजदूरी के काम) और विभिन्न प्रकार के लाग-बाग (अनावश्यक करों) को समाप्त करवाना।
- सामाजिक सुधार: शिक्षा का प्रसार करना, छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर करना और समाज में जागृति लाना।
- राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ाव: रियासती जनता के संघर्ष को भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन की मुख्य धारा से जोड़ना।
राजस्थान के प्रमुख प्रजामण्डल
राजस्थान की लगभग सभी रियासतों में प्रजामण्डलों की स्थापना हुई। इनका संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित विवरण निम्नलिखित है:
1. जयपुर प्रजामण्डल (1931, 1936)
- स्थापना: राजस्थान में सर्वप्रथम प्रजामण्डल की स्थापना 1931 में जयपुर में कपूरचन्द पाटनी द्वारा की गई। हालाँकि, यह अधिक सक्रिय नहीं रहा।
- पुनर्गठन: 1936-37 में सेठ जमनालाल बजाज और हीरालाल शास्त्री के प्रयासों से इसका पुनर्गठन किया गया। चिरंजीलाल मिश्र इसके अध्यक्ष बने।
- जेंटलमैन्स एग्रीमेन्ट (1942): भारत छोड़ो आन्दोलन के समय, जयपुर प्रजामण्डल के नेता हीरालाल शास्त्री और रियासत के प्रधानमंत्री सर मिर्जा इस्माइल के बीच एक समझौता हुआ। इसके तहत जयपुर रियासत ने उत्तरदायी शासन स्थापित करने का आश्वासन दिया और प्रजामण्डल ने भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग नहीं लेने का निर्णय किया।
- आजाद मोर्चा: जेंटलमैन्स एग्रीमेन्ट से असंतुष्ट प्रजामण्डल के कुछ सदस्यों जैसे बाबा हरीशचन्द्र, रामकरण जोशी, दौलतमल भंडारी ने ‘आजाद मोर्चा’ का गठन किया और भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया। बाद में 1945 में नेहरू जी की प्रेरणा से इसका विलय वापस प्रजामण्डल में हो गया।
2. मारवाड़ (जोधपुर) प्रजामण्डल (1934)
- स्थापना: 1934 में जयनारायण व्यास और भंवरलाल सर्राफ द्वारा स्थापित।
- संघर्ष: मारवाड़ में नागरिक अधिकारों के लिए लंबा संघर्ष चला। 1936 में ‘कृष्णा दिवस’ और ‘शिक्षा दिवस’ मनाए गए, जो रियासती दमन के विरुद्ध विरोध के प्रतीक थे।
- नेतृत्व: जयनारायण व्यास इस आन्दोलन की आत्मा थे। उन्हें ‘लोकनायक’ और ‘शेर-ए-राजस्थान’ भी कहा जाता है। उन्होंने ‘अखण्ड भारत’ और ‘पीप’ जैसे समाचार पत्रों का संपादन कर जनजागृति फैलाई।
3. मेवाड़ (उदयपुर) प्रजामण्डल (1938)
- स्थापना: 24 अप्रैल, 1938 को माणिक्यलाल वर्मा द्वारा स्थापित। इसके अध्यक्ष बलवन्त सिंह मेहता थे।
- विशेष तथ्य: इसकी स्थापना के बाद मेवाड़ रियासत ने माणिक्यलाल वर्मा के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन उन्होंने गुप्त रूप से आन्दोलन का संचालन जारी रखा।
- महिलाओं की भूमिका: इस आन्दोलन में महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया, जिनमें माणिक्यलाल वर्मा की पत्नी, नारायणी देवी वर्मा का नाम प्रमुख है।
- भारत छोड़ो आन्दोलन: मेवाड़ प्रजामण्डल ने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
4. बीकानेर प्रजामण्डल (1936)
- स्थापना: 1936 में मघाराम वैद्य द्वारा।
- विशेष तथ्य: यह एक महत्वपूर्ण प्रजामण्डल था जिसकी स्थापना रियासत के बाहर, कलकत्ता (कोलकाता) में हुई थी। यह प्रश्न अक्सर परीक्षाओं में पूछा जाता है।
- संघर्ष: महाराजा गंगा सिंह की दमनकारी नीतियों के कारण यह आन्दोलन राज्य में अधिक पनप नहीं सका।
5. कोटा प्रजामण्डल (1939)
- स्थापना: इसकी स्थापना का श्रेय पं. नयनूराम शर्मा और अभिन्न हरि को जाता है।
- विशेष तथ्य: भारत छोड़ो आन्दोलन (1942) के दौरान, कोटा के क्रांतिकारियों ने जनता के साथ मिलकर शहर के प्रशासन पर कुछ दिनों के लिए कब्जा कर लिया और कोतवाली पर तिरंगा फहरा दिया। यह प्रजामण्डल आन्दोलन की एक अनूठी घटना थी।
6. सिरोही प्रजामण्डल (1939)
- स्थापना: इसकी स्थापना गोकुलभाई भट्ट के प्रयासों से 1939 में रियासत के बाहर, बम्बई (मुंबई) में की गई थी।
- नेतृत्व: गोकुलभाई भट्ट इसके प्रमुख नेता थे। उन्हें “राजस्थान का गांधी” कहा जाता है।
7. डूंगरपुर प्रजामण्डल (1944)
- स्थापना: 1944 में भोगीलाल पण्ड्या द्वारा स्थापित। पण्ड्या जी को “वागड़ का गांधी” के नाम से जाना जाता है।
- रास्तापाल काण्ड (जून 1947): यह घटना डूंगरपुर प्रजामण्डल के इतिहास का एक अविस्मरणीय अध्याय है। रास्तापाल गाँव में सरकारी आदेश के बावजूद पाठशाला बंद न करने पर, पुलिस ने शिक्षक नानाभाई खांट की हत्या कर दी और दूसरे शिक्षक सेंगाभाई को ट्रक से बांधकर घसीटने लगी। अपने गुरु को बचाने के लिए 13 वर्षीय भील बालिका कालीबाई ने रस्सी काट दी। सैनिकों ने कालीबाई पर गोलियाँ बरसा दीं और वह शहीद हो गई। कालीबाई का बलिदान आज भी शिक्षा और साहस का प्रतीक है।
8. जैसलमेर प्रजामण्डल (1945)
- स्थापना: 1945 में मीठालाल व्यास द्वारा जोधपुर में स्थापित किया गया (रियासत के बाहर)।
- सागरमल गोपा की शहादत: जैसलमेर में जनजागृति का श्रेय क्रांतिकारी सागरमल गोपा को जाता है। उन्होंने “आजादी के दीवाने” और “जैसलमेर का गुंडाराज” जैसी पुस्तकें लिखकर रियासती अत्याचारों को उजागर किया। इससे नाराज होकर उन्हें जेल में डाल दिया गया और 3 अप्रैल, 1946 को जेलर गुमान सिंह ने उन पर मिट्टी का तेल छिड़ककर जिन्दा जला दिया। उनकी मृत्यु की जांच के लिए ‘गोपाल स्वरूप पाठक आयोग’ का गठन किया गया था।
अन्य महत्वपूर्ण प्रजामण्डल (संक्षिप्त सारणी)
प्रजामण्डल | स्थापना वर्ष | संस्थापक/प्रमुख नेता |
शाहपुरा | 1938 | रमेशचन्द्र ओझा, लादूराम व्यास |
अलवर | 1938 | पं. हरिनारायण शर्मा, कुंजबिहारी लाल मोदी |
भरतपुर | 1938 | किशनलाल जोशी, गोपीलाल यादव |
करौली | 1938 | त्रिलोकचन्द माथुर |
धौलपुर | 1936 | कृष्णदत्त पालीवाल, ज्वालाप्रसाद जिज्ञासु |
बांसवाड़ा | 1943 | भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी |
प्रतापगढ़ | 1945 | अमृतलाल पायक, चुन्नीलाल प्रभाकर |
झालावाड़ | 1946 | मांगीलाल भव्य (यह सबसे अंत में गठित प्रजामण्डल था) |
विशेष नोट: शाहपुरा राजस्थान की पहली रियासत थी जिसने सबसे पहले पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना की।
प्रजामण्डल आन्दोलन का महत्व एवं परिणाम
प्रजामण्डल आन्दोलनों ने राजस्थान के राजनीतिक और सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला:
- राजनीतिक जागृति: इन आन्दोलनों ने रियासतों की सोई हुई जनता को जगाया और उन्हें अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सचेत किया।
- राष्ट्रीयता का विकास: इन्होंने रियासती जनता को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य धारा से जोड़ा और उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार किया।
- सामंतवाद पर प्रहार: इन आन्दोलनों ने जागीरदारों और ठिकानेदारों की शोषणकारी व्यवस्था को कमजोर किया।
- उत्तरदायी शासन की नींव: आन्दोलनों के दबाव में कई शासकों को संवैधानिक सुधार करने पड़े, जिससे उत्तरदायी शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- एकीकरण में सहायक: प्रजामण्डलों द्वारा उत्पन्न राजनीतिक चेतना ने स्वतंत्रता के बाद राजस्थान की रियासतों के भारत में विलय और एकीकरण की प्रक्रिया को सुगम बनाया।
- नेतृत्व का विकास: इन आन्दोलनों ने हीरालाल शास्त्री, जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा, गोकुलभाई भट्ट और भोगीलाल पण्ड्या जैसे नेता दिए, जिन्होंने आधुनिक राजस्थान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।