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1857 की क्रान्ति: राजस्थान के संदर्भ में

भारत में 1857 की क्रांति ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध भारतीयों का पहला व्यापक संगठित विद्रोह थी, जिसे ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ भी कहा जाता है। यद्यपि यह क्रांति मुख्य रूप से उत्तरी भारत में केंद्रित थी, इसका प्रभाव और लहरें राजस्थान की रियासतों में भी महसूस की गईं, जहाँ रियासती शासकों, सामंतों और आम जनता ने अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ दीं।


1. क्रांति के समय राजस्थान की स्थिति

1857 की क्रांति के समय राजस्थान में निम्नलिखित प्रमुख व्यवस्थाएँ थीं:

  • ब्रिटिश रेजिडेंट: 1832 में राजपूताना रेजीडेंसी की स्थापना अजमेर में हुई, जिसका मुख्यालय अजमेर में था। 1845 में इसे माउंट आबू स्थानांतरित कर दिया गया।
  • ए.जी.जी. (एजेंट टू गवर्नर जनरल): क्रांति के समय राजस्थान के ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेंस थे।
  • रियासतें और पॉलिटिकल एजेंट (PA):
    • मेवाड़ (उदयपुर): महाराणा स्वरूप सिंह (PA: कैप्टन शावर्स)
    • मारवाड़ (जोधपुर): महाराजा तख्त सिंह (PA: मैकमोशन)
    • जयपुर: महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय (PA: विलियम ईडन)
    • कोटा: महाराव रामसिंह द्वितीय (PA: मेजर बर्टन)
    • भरतपुर: महाराजा जसवंत सिंह (PA: मॉरिसन)
    • सिरोही: महाराजा शिव सिंह (PA: जे.डी. हॉल)
    • उल्लेखनीय: टोंक के नवाब वजीरुद्दौला (क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति), करौली के महाराजा मदनपाल (कोटा विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की सहायता)।
  • सैनिक छावनियाँ: क्रांति के समय राजस्थान में ब्रिटिश सेना की छह प्रमुख छावनियाँ थीं:
    1. नसीराबाद (अजमेर): 15वीं और 30वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री, यूरोपीय पैदल सेना की टुकड़ी, तोपखाना। (यह सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण छावनी थी)
    2. नीमच (मध्य प्रदेश में, लेकिन मेवाड़ के अंतर्गत): कोटा कंटिंजेंट।
    3. एरिनपुरा (जोधपुर): जोधपुर लीजन।
    4. देवली (टोंक): कोटा कंटिंजेंट और जयपुर लीजन।
    5. ब्यावर (अजमेर): मेरवाड़ा बटालियन। (यहाँ कोई विद्रोह नहीं हुआ)
    6. खेरवाड़ा (उदयपुर): भील रेजिमेंट। (यहाँ भी कोई विद्रोह नहीं हुआ)

2. क्रांति के कारण (राजस्थान के संदर्भ में)

राजस्थान में क्रांति के प्रमुख कारण राष्ट्रीय कारणों के साथ-साथ स्थानीय परिस्थितियों में भी निहित थे:

  • रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप: ब्रिटिश सरकार ने सहायक संधियों के माध्यम से देशी रियासतों की संप्रभुता समाप्त कर दी थी और उनके आंतरिक प्रशासन में अत्यधिक हस्तक्षेप कर रही थी।
  • सामंतों के अधिकारों का हनन: ब्रिटिश नीतियों ने सामंतों के पारंपरिक अधिकारों और विशेषकर जागीरदारों की शक्ति को कम कर दिया, जिससे सामंत वर्ग में असंतोष फैल गया।
  • आर्थिक शोषण: अंग्रेजों की भू-राजस्व नीतियों और व्यापारिक एकाधिकार ने किसानों और व्यापारियों का शोषण किया।
  • ईसाई धर्म का प्रचार: अंग्रेजों द्वारा ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार और भारतीय संस्कृति के प्रति उपेक्षा ने धार्मिक भावनाओं को आहत किया।
  • सैनिकों में असंतोष: भारतीय सैनिकों को कम वेतन, नस्लीय भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता था। चर्बी वाले कारतूसों की घटना ने धार्मिक भावनाओं को भड़का दिया और तात्कालिक कारण बनी।
  • गोद निषेध नीति (व्यपगत का सिद्धांत): लॉर्ड डलहौजी की नीति ने कई भारतीय राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की धमकी दी, जिससे शासकों में भय व्याप्त हो गया।
  • स्थानीय असंतोष: कुछ सामंतों, जैसे आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह, का अपने महाराजाओं (जैसे जोधपुर के महाराजा तख्त सिंह) से विवाद भी क्रांति के दौरान ब्रिटिश विरोधी भावनाओं से जुड़ गया।

3. राजस्थान में क्रांति का प्रारम्भ और प्रसार

राजस्थान में 1857 की क्रांति का प्रारम्भ राष्ट्रीय स्तर पर मेरठ से कुछ समय बाद हुआ।

3.1. नसीराबाद छावनी में विद्रोह (28 मई, 1857)

  • पृष्ठभूमि: मेरठ विद्रोह की खबर अजमेर पहुँचने पर, 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के सैनिकों को अजमेर से नसीराबाद स्थानांतरित किया गया, जिससे उनमें अविश्वास और संदेह पैदा हुआ।
  • विद्रोह: 28 मई 1857 को 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया।
  • घटनाएँ: सैनिकों ने छावनी को लूट लिया, ब्रिटिश अधिकारियों के बंगलों पर हमला किया। मेजर स्पोटिसवुड़ और कर्नल न्यूबरी की हत्या कर दी गई।
  • परिणाम: अंग्रेज अधिकारी नसीराबाद छोड़कर ब्यावर भाग गए। विद्रोही सैनिक दिल्ली की ओर रवाना हो गए।

3.2. नीमच छावनी में विद्रोह (3 जून, 1857)

  • पृष्ठभूमि: कर्नल अबॉट ने सैनिकों को ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी की शपथ दिलाई, जिसका मोहम्मद अली बेग नामक एक सैनिक ने विरोध किया।
  • विद्रोह: 3 जून 1857 को नीमच छावनी के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया।
  • नेतृत्व: हीरालाल।
  • घटनाएँ: 40 अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवारजनों ने भागकर डूंगला गाँव में रूंगाराम किसान के यहाँ शरण ली। मेवाड़ के महाराणा स्वरूप सिंह ने इन अंग्रेजों को सुरक्षित उदयपुर लाकर जगमंदिर महल में ठहराया।
  • परिणाम: नीमच में विद्रोह दबाने के लिए कैप्टन शावर्स के नेतृत्व में मेवाड़, कोटा और बूंदी की संयुक्त सेना भेजी गई। 8 जून को नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया गया।

3.3. एरिनपुरा छावनी में विद्रोह (21 अगस्त, 1857)

  • पृष्ठभूमि: जोधपुर लीजन के सैनिकों को नसीराबाद भेजा जा रहा था। माउण्ट आबू में विद्रोहियों ने ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेंस के पुत्र अलेक्जेंडर की हत्या कर दी।
  • विद्रोह: 21 अगस्त 1857 को एरिनपुरा छावनी में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया।
  • नेतृत्व: सूबेदार शीतलप्रसाद, मोती खां और तिलकराम।
  • नारा: विद्रोही सैनिकों ने “चलो दिल्ली, मारो फिरंगी” का नारा दिया।
  • आउवा की ओर प्रस्थान: ये विद्रोही सैनिक आउवा (पाली) पहुँचे, जहाँ उन्हें ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत का नेतृत्व प्राप्त हुआ।

4. आउवा का विद्रोह (मारवाड़ में)

आउवा का विद्रोह राजस्थान में 1857 की क्रांति का एक प्रमुख और संगठित केंद्र था।

  • पृष्ठभूमि: आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत जोधपुर के महाराजा तख्त सिंह से असंतुष्ट थे, क्योंकि उन्होंने उनकी जागीर जब्त कर ली थी। इस कारण कुशाल सिंह ने ब्रिटिश विरोधी विद्रोहियों का साथ दिया।
  • नेतृत्व: ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत।
  • विद्रोही: एरिनपुरा के विद्रोही सैनिक, पाली के जागीरदार और आम जनता।
  • प्रमुख युद्ध:
    1. बिठोड़ा का युद्ध (8 सितंबर, 1857): पाली में बिठोड़ा नामक स्थान पर जोधपुर की राजकीय सेना (महाराजा तख्त सिंह की सेना, जिसका नेतृत्व कैप्टन हीथकोट और किलेदार ओनाड़ सिंह कर रहे थे) और ठाकुर कुशाल सिंह की सेना के बीच युद्ध हुआ। ठाकुर कुशाल सिंह की विजय हुई और ओनाड़ सिंह मारा गया।
    2. चेलावास का युद्ध (18 सितंबर, 1857) – ‘काले-गोरों का युद्ध’: इस युद्ध में ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेंस और जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट मैकमोशन की संयुक्त सेना ने ठाकुर कुशाल सिंह का सामना किया। क्रांतिकारियों ने मैकमोशन का सिर काटकर आउवा दुर्ग के किले पर लटका दिया। क्रांतिकारियों की पुनः विजय हुई।
    3. आउवा का युद्ध (20 जनवरी, 1858): ब्रिटिश सेनापति कर्नल होम्स के नेतृत्व में एक विशाल सेना ने आउवा पर आक्रमण किया। ठाकुर कुशाल सिंह को अंततः आउवा छोड़ना पड़ा और वे सलुम्बर चले गए। किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
  • सुगाली माता: आउवा के ठाकुरों की कुलदेवी सुगाली माता (जिनके 10 सिर और 54 हाथ थे) को 1857 की क्रांति की देवी माना जाता है। अंग्रेज उनकी मूर्ति को अजमेर ले गए थे।
  • परिणाम: 1860 में कुशाल सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। मेजर टेलर आयोग ने उनकी जाँच की और उन्हें निर्दोष पाया।

5. कोटा में विद्रोह (15 अक्टूबर, 1857)

कोटा में विद्रोह सर्वाधिक सुनियोजित और व्यापक था, जिसमें राजकीय सेना और आम जनता दोनों ने भाग लिया।

  • नेतृत्व: लाला जयदयाल (पूर्व वकील) और मेहराब खां (रिसालदार)।
  • घटनाएँ: 15 अक्टूबर 1857 को कोटा की सेना ने विद्रोह कर दिया। पॉलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन, उनके पुत्र फ्रैंक और आर्थर, तथा डॉ. सैडलर और मि. सेविल की हत्या कर दी गई। बर्टन का सिर काटकर पूरे शहर में घुमाया गया।
  • शासन: क्रांतिकारियों ने लगभग 6 महीने तक कोटा शहर पर नियंत्रण रखा और महाराव रामसिंह द्वितीय को अपने महल में नजरबंद कर दिया।
  • दमन: मार्च 1858 में ब्रिटिश जनरल रॉबर्ट्स ने करौली के महाराजा मदनपाल की सहायता से कोटा पर पुनः अधिकार कर लिया और विद्रोह का दमन किया। लाला जयदयाल और मेहराब खां को फांसी दे दी गई।

6. अन्य महत्वपूर्ण केंद्र

  • टोंक: यहाँ नवाब वजीरुद्दौला के मामा मीर आलम खां ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। नवाब वजीरुद्दौला अंग्रेजों के प्रति वफादार थे, लेकिन उनकी जनता और सेना में असंतोष था।
  • धौलपुर: यहाँ के विद्रोह में ग्वालियर और इंदौर के क्रांतिकारी शामिल थे। रामचंद्र और हीरालाल ने नेतृत्व किया। यहाँ स्थानीय शासक (भगवंत सिंह) और पॉलिटिकल एजेंट (निकोलसन) कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं रख पाए।
  • भरतपुर: यहाँ गुर्जर और मेवों ने विद्रोह किया, लेकिन महाराजा जसवंत सिंह अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे।
  • जयपुर: महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे और उन्हें अंग्रेजों ने ‘सितारे-ए-हिंद’ की उपाधि दी। हालाँकि, कुछ स्थानीय लोग, जैसे सादुल्ला खान, विलायत खान और उस्मान खान, विद्रोहियों के समर्थक थे।
  • बीकानेर: महाराजा सरदार सिंह एकमात्र शासक थे जो अपनी सेना लेकर अंग्रेजों की सहायता के लिए राजस्थान से बाहर (पंजाब तक) गए।

7. तात्या टोपे का राजस्थान में आगमन

तात्या टोपे (असली नाम: रामचंद्र पांडुरंग), जो उत्तर भारत में क्रांति के एक प्रमुख नेता थे, 1857 के अंत में और 1858 में कई बार राजस्थान आए।

  • उद्देश्य: राजस्थान के राजाओं और सामंतों से सहयोग प्राप्त कर अंग्रेजों के विरुद्ध एक नया मोर्चा खोलना।
  • प्रवेश: सर्वप्रथम भीलवाड़ा में प्रवेश किया।
  • गतिविधियाँ: उन्होंने टोंक, बूंदी, झालावाड़, बांसवाड़ा और सिरोही सहित कई रियासतों में अंग्रेजों से संघर्ष किया। उन्होंने झालावाड़ के शासक पृथ्वी सिंह को हराकर वहाँ अधिकार कर लिया था।
  • धोखा: अंततः उन्हें नरवर (मध्य प्रदेश) में उनके विश्वासघाती मित्र मानसिंह नरुका ने धोखे से अंग्रेजों को सौंप दिया।
  • फांसी: 18 अप्रैल 1859 को शिवपुरी (मध्य प्रदेश) में उन्हें फाँसी दे दी गई। वह राजस्थान में फांसी पाने वाले अंतिम क्रांतिकारी थे।
  • अमरचंद बांठिया: बीकानेर के अमरचंद बांठिया को 1857 की क्रांति का ‘भामाशाह’ कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने तात्या टोपे और अन्य क्रांतिकारियों को अपनी सारी संपत्ति दान कर दी थी। उन्हें 22 जून 1858 को ग्वालियर में फांसी दी गई। वह राजस्थान के प्रथम शहीद थे।

8. क्रांति की असफलता के कारण

राजस्थान में 1857 की क्रांति के असफल होने के कई कारण थे:

  • शासकों का अंग्रेजों के प्रति वफादार होना: राजस्थान के अधिकांश शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया और विद्रोहियों को दबाने में मदद की।
  • नेतृत्व का अभाव: कोई केंद्रीय नेतृत्व या समन्वय नहीं था। विभिन्न केंद्रों पर स्थानीय नेताओं ने नेतृत्व किया, लेकिन वे एकजुट नहीं थे।
  • निश्चित तिथि का अभाव: क्रांति की शुरुआत निर्धारित तिथि से पहले ही हो गई, जिससे योजनाएँ अव्यवस्थित हो गईं।
  • सीमित संसाधन: क्रांतिकारियों के पास धन, हथियार और प्रशिक्षित सैनिकों की कमी थी।
  • सहयोग का अभाव: आम जनता का व्यापक सहयोग नहीं मिल पाया, विशेषकर बड़े जमींदारों और व्यापारियों का।
  • समय से पूर्व शुरुआत: नसीराबाद में समय से पहले क्रांति भड़क जाने से अंग्रेजों को संभलने का मौका मिल गया।
  • अकुशल रणनीति: क्रांतिकारियों के पास एक स्पष्ट रणनीति और दूरदर्शिता का अभाव था।

9. क्रांति के परिणाम एवं प्रभाव

यद्यपि 1857 की क्रांति राजस्थान में पूर्णतः सफल नहीं हुई, फिर भी इसके दूरगामी परिणाम हुए:

  • ब्रिटिश सत्ता का सुदृढ़ीकरण: अंग्रेजों ने देशी रियासतों पर अपनी पकड़ और मजबूत कर ली। 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया और भारत का शासन सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गया।
  • राजपूत शासकों की स्थिति: शासकों की स्थिति कमजोर हुई, लेकिन ब्रिटिश सुरक्षा के तहत उनकी रियासतें सुरक्षित रहीं। उन्हें ‘बाँध’ के रूप में देखा गया जिसने ‘तूफ़ान’ को रोका।
  • जागीरदारों की शक्ति में कमी: अंग्रेजों ने जागीरदारों की शक्ति को और कम करने का प्रयास किया।
  • राष्ट्रवाद का उदय: क्रांति ने भविष्य के स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा का काम किया और राजस्थान में भी राष्ट्रवाद तथा राजनीतिक चेतना का बीजारोपण किया।
  • सैन्य पुनर्गठन: ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सेना का पुनर्गठन किया, जहाँ यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई।
  • सांप्रदायिक विभाजन: अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को और मजबूती से अपनाया।

निष्कर्ष

1857 की क्रांति राजस्थान के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिरोध का प्रतीक थी, बल्कि इसने राजस्थान की रियासतों और उसके लोगों के भीतर के अंतर्विरोधों को भी उजागर किया। यद्यपि यह अपने तत्काल लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रही, इसने निश्चित रूप से भविष्य के राष्ट्रीय आंदोलन की नींव रखी और राजस्थान में भी जनमानस में स्वतंत्रता और अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा की।


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