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पर्यावरण संबंधी आंदोलन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। स्वच्छ पर्यावरण किसी भी समाज की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। स्वच्छ पर्यावरण के साथ मानव जीवन, स्वास्थ्य एवं उसका विकास जुड़ा हुआ है। पर्यावरण की शुद्धता इसके सभी घटकों जैसे – वायु, जल व मृदा की शुद्धता से संबंधित है। पर्यावरण एवं औद्योगिक विकास के बीच सामंजस्य बनाए रखने की आवश्यकता है।

आज विकास विनाश का कारण बन गया है, जिससे पर्यावरण के सभी घटकों को क्षति पहुँची है। जब कानून व्यवस्था के द्वारा पर्यावरण का दोहन रोका नहीं जाता, प्रभावी नियंत्रण नहीं होता तथा समस्या का समाधान न होने के कारण समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है, तब जन समुदाय पर्यावरण समस्या के निवारण हेतु आंदोलन के माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान करवाने के लिए उठ खड़ा होता है। इसे ही जन आंदोलन कहा जाता है। इनका अध्ययन आज के संदर्भ में अत्यंत आवश्यक है।

यद्यपि जल, भूमि, वायु आदि सभी प्रदूषित हो चुके हैं, फिर भी मानव का असंयमित व अविवेकशील विकास कार्य सतत जारी है। उत्तर उत्तर मानव विकास एवं पर्यावरण संरक्षण के बीच सामंजस्य समाप्त हो गया है। पर्यावरणविद निरंतर सचेत कर रहे हैं कि यदि इसी तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाता रहा तो पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन के गंभीर संकट का सामना करना पड़ सकता है।

इन सबके उपरांत भी कुछ ऐसे प्रयास व जन आंदोलन चल रहे हैं, जो पर्यावरण एवं पारिस्थितिक तंत्र में संतुलन बनाए रखने में अपनी सकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं। इनमें से कुछ सफल ऐतिहासिक महत्त्व के आंदोलनों का वर्णन इस प्रकार है —

पर्यावरण संबंधी आंदोलन

खेजड़ली आंदोलन

वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के विरुद्ध प्रथम जन आंदोलन का उदय राजस्थान के खेजड़ली ग्राम में हुआ, जो जोधपुर से लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित है। यह घटना सन् 1731 में घटी। इस ग्राम और इसके आस-पास के क्षेत्र में बिश्नोई जाति की बहुलता है। बिश्नोई समाज के 29 नियमों में से एक महत्वपूर्ण नियम है — वृक्षों की रक्षा करना

खेजड़ली गाँव से जलाने की लकड़ी प्राप्त करने के लिए तत्कालीन जोधपुर महाराजा द्वारा आदेश जारी किए गए। इस आदेश के तहत पेड़ों को काटा जाना था। इसके विरोध में एक साहसी महिला अमृता देवी के नेतृत्व में आंदोलन की शुरुआत हुई।

इस आंदोलन में बिश्नोई समुदाय के 363 सदस्य, जो अपने प्रिय खेजड़ी के वृक्षों को बचाने के लिए उनसे लिपट गए थे, वृक्षों के साथ ही काट दिए गए। इन 363 शहीदों में अमृता देवी के पति रामोजी तथा उनकी तीन पुत्रियाँ भी शामिल थीं।

राजस्थान के खेजड़ली गाँव में वृक्षों की कटाई के विरोध में हुआ यह आंदोलन प्राकृतिक वनस्पति के संरक्षण की दिशा में एक चिंगारी साबित हुआ। वर्तमान में राज्य सरकार ने खेजड़ी वृक्ष को राज्य वृक्ष घोषित कर बिश्नोई समाज के इस बलिदान को सम्मान देने का प्रयास किया है।

यहाँ आपका दिया हुआ चिपको आंदोलन का अंश मैंने पूरी तरह सही, स्पष्ट और सुगम भाषा में पुनर्लिखित किया है —


चिपको आंदोलन

उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) में स्थित टिहरी गढ़वाल के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक वन संपदा के संरक्षण के लिए 1972 में एक आंदोलन आरंभ हुआ। चूँकि इस आंदोलन के अंतर्गत स्थानीय निवासियों द्वारा वृक्षों से चिपककर (लिपटकर) उनके काटे जाने का विरोध किया गया था, इसलिए इसे चिपको आंदोलन नाम दिया गया।

चिपको आंदोलन की शुरुआत

वर्तमान स्वरूप में चिपको आंदोलन का आरंभ उत्तराखंड राज्य के चमोली ज़िले में स्थित गोपेश्वर नगर के समीप मंडल गाँव में 27 मार्च 1973 को हुआ। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने खेलकूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमन कंपनी को अंगू (Ash) के पेड़ काटने की अनुमति दी थी। इसके विरोध में स्थानीय निवासियों ने नारा दिया —
“यदि पेड़ काटने कोई आएगा तो हम पेड़ों से चिपककर उनकी रक्षा करेंगे।”

चिपको आंदोलन के प्रमुख नेता सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट रहे। इस क्षेत्र में 1972 में संगठित रूप से पहला आंदोलन गौरा देवी नामक महिला के नेतृत्व में हुआ, जिसमें हिमालयी क्षेत्रों में वनों की कटाई रोकने की पहल की गई। आंदोलन के परिणामस्वरूप सरकार ने अलकनंदा के 1300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को संवेदनशील घोषित किया और 10 वर्षों के लिए पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी।


महिलाओं की भूमिका

1731 में अमृता देवी और 1972 में गौरा देवी — इन दोनों महिलाओं ने वृक्ष संरक्षण के लिए जो साहस और नेतृत्व दिखाया, उसने चिपको आंदोलन को ऐतिहासिक बना दिया। यह आंदोलन भारत में महिलाओं के योगदान का गौरवपूर्ण उदाहरण है।


चिपको आंदोलन के उद्देश्य

  1. वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकना।
  2. पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए अधिक वृक्षारोपण करना।
  3. लोगों में वन संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाना।
  4. व्यवसायिक महत्त्व वाले पेड़ों की तुलना में पर्यावरणीय महत्त्व वाले पेड़ों का अधिक रोपण।
  5. सामाजिक वानिकी और कृषि वानिकी का विकास करना।
  6. बड़े बाँधों के निर्माण का विरोध, ताकि पर्यावरणीय संतुलन बना रहे।
  7. आर्थिक विकास के लिए फलदार पेड़ों को उगाना।

आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने पदयात्राएँ और प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए, जिनके माध्यम से ग्रामीणों को वनों और पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व के बारे में जागरूक किया गया।


एप्पिको आंदोलन से संबंध

चिपको आंदोलन की प्रेरणा से कर्नाटक में एप्पिको आंदोलन (कन्नड़ में “चिपको” का अर्थ) शुरू हुआ, जिसके नेता पांडुरंग हेगड़े थे।


प्रमुख उपलब्धियाँ

  • वनों की कटाई पर रोक लगाने के लिए जन-जागरूकता का निर्माण।
  • 1977 में घोषणा कि “वनों का मुख्य उत्पाद लकड़ी नहीं, बल्कि मृदा, जल और ऑक्सीजन हैं।”
  • महिलाओं द्वारा दिया गया प्रसिद्ध नारा —
    “क्या हैं जंगल के उपकार? मिट्टी, पानी और बयार —
    मिट्टी, पानी और बयार, जिनसे है जीवन का आधार।”

1982 में सुंदरलाल बहुगुणा ने लंदन में आयोजित यू.एन.ई.पी. सम्मेलन में हिमालय क्षेत्र में वनों की कटाई रोकने, मृदा एवं जल संरक्षण की योजना प्रस्तुत की। उनका मानना था कि पहाड़ी क्षेत्रों में हर पेड़ का आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है।


पाँच एफ (5 F) का सिद्धांत

चिपको आंदोलन का वास्तविक उद्देश्य पाँच एफ वाले वृक्षारोपण को बढ़ावा देना था —

  • Food (भोजन)
  • Fodder (चारा)
  • Fuel (ईंधन)
  • Fertilizer (खाद)
  • Fibres (रेशे)

इनसे स्थानीय समुदाय आत्मनिर्भर हो सकता है और मृदा व जल संरक्षण भी संभव है।


उपसंहार

प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन के शब्दों में, “चिपको आंदोलन एक सजीव विचार है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है।”
सुंदरलाल बहुगुणा के अनुसार, चिपको केवल हिमालय की समस्या का समाधान नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवजाति के लिए एक उत्तर है। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने आस-पास के पेड़ों की रक्षा करे और नए वृक्ष लगाकर पर्यावरणीय संकट के समाधान में योगदान दे।

नर्मदा बचाओ आंदोलन

नर्मदा या नरबदा मध्य भारत में बहने वाली एक महत्वपूर्ण नदी है। यह उत्तर और दक्षिण भारत की पारंपरिक सीमा (Traditional Boundary) बनाती है। इसकी लंबाई लगभग 1,289 किलोमीटर है। यह भारत की उन तीन नदियों में से एक है जो पूरब से पश्चिम की ओर बहती हैं। नर्मदा नदी का उद्गम मध्य प्रदेश के अमरकंटक स्थान से होता है, जो सतपुड़ा पहाड़ियों पर स्थित है।

नदी जबलपुर के पास भेड़ाघाट में स्थित संगमरमर की चट्टानों (Marble Rocks) के बीच से बहते हुए एक सुंदर जलप्रपात का निर्माण करती है। यह मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के विभिन्न जिलों से होकर बहती है और अंत में अरब सागर में जाकर मिलती है। नर्मदा नदी हिंदुओं की धार्मिक आस्था से भी गहराई से जुड़ी हुई है।


सरदार सरोवर बाँध
1947 में नर्मदा घाटी विकास परियोजना का गठन किया गया, जिसमें नर्मदा नदी पर 30 बड़े, 135 मध्यम और 3,000 छोटे बाँध बनाने की योजना थी। यह योजना पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय में बनाई गई थी। 1961 में इस पर कार्य शुरू हुआ। मध्य-पश्चिमी भारत में बनने वाली यह परियोजना अब तक की सबसे बड़ी विकास परियोजना है, जिसे पूर्ण होने में लगभग 100 वर्ष लगने का अनुमान है।

इन बाँधों में से 5 बाँधों से 2,750 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा और व्यापक क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होगी। लेकिन 1987 में अनुमान लगाया गया कि लगभग 41,500 परिवार विस्थापित होंगे, जिसके चलते “नर्मदा बचाओ आंदोलन” की शुरुआत हुई। इस आंदोलन का नेतृत्व मेधा पाटकर और बाबा आमटे ने किया।

विरोध स्वरूप हरसूद शहर (जो अब डूब चुका है) में 50,000 लोग इकट्ठा हुए। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने नर्मदा बाँध का काम रोकने का आदेश दिया। 31 मई 1995 को मेधा पाटकर समेत 500 लोगों को मध्य प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार किया। कई वर्षों के बाद, 17 अप्रैल 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने बाँध पर कार्य जारी रखने और विस्थापितों के पुनर्वास का कार्य 3 महीने में पूरा करने का निर्देश दिया।


पुनर्वास
नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुख्य जोर बाँध निर्माण के कारण विस्थापित लोगों के पुनर्वास और उचित मुआवजे पर है। आंदोलनकारियों का कहना है कि पिछले 45 वर्षों में अब तक कई हजार परिवारों को मुआवजा नहीं मिला है। परियोजना से प्रभावित लगभग 245 गाँव हैं — जिनमें 19 गुजरात में, 33 महाराष्ट्र में और 193 मध्य प्रदेश में हैं।

अब तक लगभग 1.5 लाख हेक्टेयर भूमि इस परियोजना के लिए अधिग्रहित की जा चुकी है। परियोजना से लाभ मिलने के लिए हजारों लोगों को अपने पैतृक घर छोड़ने होंगे।


नर्मदा बचाओ आंदोलन

पिछले कुछ वर्षों में नर्मदा नदी पर 30 बड़े बाँध बनाने की योजना बनी है, जिनमें गुजरात के भरूच ज़िले में “सरदार सरोवर परियोजना” और मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले में “इंदिरा सागर परियोजना” शामिल हैं।

वन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, इंदिरा सागर परियोजना से 20,923 करोड़ रुपये और नर्मदा सागर परियोजना से 8,190 करोड़ रुपये का पर्यावरणीय नुकसान केवल वन विनाश के कारण होगा। लगभग 80 लाख पेड़ों की कटाई से क्षेत्र का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ेगा, वर्षा चक्र में परिवर्तन होगा, और ऑक्सीजन की मात्रा घटेगी।

इन परियोजनाओं से लगभग 1,30,482 हेक्टेयर भूमि जलमग्न होगी, जिसमें 55,681 हेक्टेयर उपजाऊ कृषि भूमि और 56,066 हेक्टेयर वन भूमि शामिल है। इसके अतिरिक्त विस्थापितों के पुनर्वास और पशुओं के लिए चारागाह भूमि की भी आवश्यकता होगी।


परिणाम एवं विकल्प

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की मदद से जल और ऊर्जा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वैकल्पिक रणनीतियाँ प्रस्तुत की हैं। इनमें ऊर्जा संरक्षण, विकेन्द्रीकृत ऊर्जा उत्पादन, लघु जलाशयों का निर्माण, और स्थानीय भागीदारी पर आधारित योजनाएँ शामिल हैं।

इन योजनाओं की लागत कम होती है और पर्यावरण पर भी कम प्रभाव पड़ता है। हालांकि, अभी तक इस विवाद का कोई ठोस समाधान नहीं हो पाया है। बाँध निर्माण जारी है, जिससे भविष्य में बड़े पैमाने पर संघर्ष की संभावना बनी हुई है।

इन बाँधों से सिंचाई का लाभ मिलने के साथ-साथ कई आदिवासी समुदायों के विस्थापन और आजीविका पर गंभीर असर पड़ेगा। सरकार का दावा है कि इससे 1 करोड़ 15 लाख किसानों को सिंचाई और बिजली का लाभ मिलेगा, लेकिन आंदोलनकारियों का कहना है कि प्रभावित लोगों की अनदेखी की जा रही है।

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