प्रकृति में किसी भी वस्तु से उत्पन्न सामान्य आवाज़ को ध्वनि (Sound) कहते हैं। जब ध्वनि की तीव्रता इतनी अधिक हो जाती है कि वह कानों को असहज लगती है, तो उसे शोर (Noise) कहते हैं। शोर जिसे अंग्रेज़ी में Noise कहा जाता है, लैटिन भाषा के “Nausea” शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है अवांछित (Unwanted) या अप्रिय (Unpleasant) ध्वनि, जो परेशानी का कारण बनती है। गलत स्थान पर, गलत समय में, गलत ध्वनि को भी शोर के रूप में परिभाषित किया जाता है। पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीव-जंतुओं की सुनने की एक निश्चित सीमा होती है। इससे अधिक होने पर वह हानिकारक प्रभाव छोड़ने लगती है। इस कारण आवाज़ (Sound) को ध्वनि प्रदूषण का मुख्य प्रदूषक (Pollutant) माना जाता है। आवाज़ की उत्पत्ति प्राकृतिक तथा मानवजनित स्रोतों से होती है।
ध्वनि पर्यावरण का अभिन्न अंग है, लेकिन वर्तमान यांत्रिक युग में लगातार बढ़ रहे औद्योगिक संयंत्रों, परिवहन के साधनों तथा अन्य मानवजनित ध्वनि उत्सर्जक कार्यों के कारण ध्वनि का स्तर बढ़ गया है, जिससे ध्वनि प्रदूषण का कारण बन गया है। अतः ध्वनि प्रदूषण का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है।
परिभाषा
सामान्य भाषा में एक अवांछनीय (Unwanted) ध्वनि को शोर कहते हैं। इसके कारण मनुष्य में अशांति तथा बेचैनी उत्पन्न होती है तथा उनकी कार्यक्षमता (Working Capacity) में बाधा आती है। शोर मनुष्य की सुनने की क्षमता तथा मानसिक स्थिति में असंतुलन उत्पन्न करके मानव शरीर में अशांति एवं थकावट उत्पन्न करता है। अतः जब कोई ध्वनि शोर का रूप धारण कर लेती है तो वह प्रदूषण की श्रेणी में आ जाती है। इस प्रकार ध्वनि प्रदूषण उस स्थिति को कहते हैं जब ध्वनि का स्तर इतनी अधिक हो जाये कि मनुष्य के मानसिक कार्यों में अवरोध उत्पन्न करने लगे। मैक्सवेल (Maxwell K.E., 1973) ने शोर प्रदूषण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, “शोर वह ध्वनि है जो अवांछनीय है। यह वायु मॉडलिंग प्रदूषण का एक मुख्य कारण है।” इस कारण ध्वनि को शोर प्रदूषण के रूप में तब तक चिन्हित होने तक की सीमा विभिन्न आधारों के अनुसार विभिन्न रूप में निर्धारित किया जाता है।
शोर का मापन या तीव्रता
ध्वनि का अध्ययन जिस विज्ञान में करते हैं उसे ध्वनि विज्ञान (Acoustics) कहते हैं। ध्वनि की मापन इकाई को डेसीबल (Decibel) कहते हैं। इस मापन इकाई को ध्वनि वैज्ञानिक ग्राहम बेल (Graham Bell) ने प्रतिपादित किया था। डेसीबल ध्वनि की तीव्रता (Intensity) की मापन इकाई है जिसे संक्षेप में dB के रूप में लिखा जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों के अनुसार ध्वनि प्रदूषण का स्तर दिन के समय 55 तथा रात के समय 45 डेसीबल (dB) तक होना चाहिए। औद्योगिक क्षेत्रों में इस सीमा को दिन में 75 और रात में 70 डेसीबल तय किया गया है। अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों तथा न्यायालयों के आसपास 100 मीटर की दूरी तक के क्षेत्र को शान्त क्षेत्र घोषित किया गया है।
शोर प्रदूषण के स्रोत (Sources of Noise Pollution)
शोर प्रदूषण के स्रोतों को तीन प्रकारों में बांटा गया है:
- प्राकृतिक स्रोत (Natural Sources):
शोर प्रदूषण में प्राकृतिक स्रोतों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन इनकी निरंतरता कृत्रिम स्रोतों की अपेक्षा कम और व्यापक नहीं होती। इन स्रोतों में बादलों का गरजना, बिजली का कड़कना, तूफानी हवाओं के विभिन्न रूप जैसे – हरिकेन, झंझावत, तड़ित झंझा (Thunderstorm), टॉर्नेडो आदि, उच्च तीव्रता वाली जलवृष्टि, ओलावृष्टि (Hailstorm), जलप्रपात, सागरीय तरंगें, ज्वालामुखी विस्फोट, भूकंप आदि प्रमुख हैं। - जीवित स्रोत (Biotic Sources):
प्राकृतिक में विचरण करने वाले जीव-जंतु अपनी विभिन्न क्रियाओं द्वारा ध्वनि प्रदूषण को जन्म देते हैं। इनमें सख्त के कटघरे में शेर की दहाड़ तथा हाथियों का चिल्लाना, कुत्तों का भौंकना, पक्षियों का शोर आदि मुख्य हैं। मनुष्य भी हँसते, रोते, चिल्लाते और झगड़ते समय विभिन्न प्रकार के शोर उत्पन्न करता है। - कृत्रिम स्रोत (Artificial Sources):
कृत्रिम या मानवीय स्रोतों में मानव द्वारा किए जाने वाले विभिन्न कार्य शामिल हैं। मानवजनित औद्योगिक करण एवं नगरकरण से अनेक ध्वनि प्रदूषक कारकों का जन्म हुआ है। हम अपनी सुविधा एवं आर्थिक विकास के लिए अपनाए गए कृत्रिम साधनों से वातावरण में काफी शोर उत्पन्न करते हैं। कृत्रिम या मानवीय स्रोतों का वर्णन इस प्रकार है:
(i) औद्योगिक धुएं तथा मशीनें (Industries and Machines): तेजी से विकसित हो रहे औद्योगिककरण शोर प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। कारखानों की संख्या में वृद्धि, बड़ी-बड़ी मशीनें तथा यंत्र से शोर उत्पन्न होता है। इसका प्रभाव उनके कर्मचारियों तथा समीपवर्ती क्षेत्रों के लोगों पर पड़ता है। औद्योगिक क्षेत्रों के अतिरिक्त भवन निर्माण, सड़क निर्माण तथा संबद्ध गतिविधियों के द्वारा भी शोर उत्पन्न होता है।
(ii) परिवहन के साधन (Means of Transportation):
नगरकरण के दौर में यातायात घनत्व भी बढ़ रहा है। भारत की सड़कों पर 4.5 करोड़ कारें दौड़ रही हैं, एवं वाहनों की संख्या के अनुपात में सड़कें सीमित हैं। परिवहन के ध्वनि प्रदूषणकारी साधनों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
(a) स्थलीय परिवहन (Land Transportation): मोटर कार, मोटरसाइकिल, स्कूटर, बसें तथा रेलें आदि शोर के मुख्य कारण हैं। रेलगाड़ियों से एवं भारी ढोने वाले ट्रकों से अधिक शोर उत्पन्न होता है। सामान्यतः ट्रक द्वारा 100 dB से अधिक शोर उत्पन्न होता है।
(b) वायु परिवहन (Air Transportation): वर्तमान युग में आकर्षक एवं आरामदायक यात्रा सुविधा के कारण वायु यातायात लोकप्रिय है। हवाई जहाज के जेट इंजन उड़ान के दौरान तथा उतरते समय पीड़ादायक, असहनीय शोर उत्पन्न करते हैं जो 150 dB तक होता है। हवाई अड्डे के निकट रहने वालों को इस असहनीय ध्वनि प्रदूषण का सामना करना पड़ता है। सुपर सोनिक विमान तीव्र शोर उत्पन्न करते हैं जो अत्यंत हानिकारक है।
(iii) मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment): वर्तमान में मनोरंजन के साधनों में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से तेज संगीत का प्रचलन हो गया है। ये सभी स्थलीय और यातायात के साधनों में भी चलने लगे हैं। वर्तमान में उच्च आवृत्ति वाले पॉप संगीत भी लोगों को अधिक पसंद हैं, जो हानिकारक हैं। टेलीविजन, रेडियो तथा अन्य ध्वनि उत्सर्जक यंत्रों से उत्पन्न शोर अतः बहरेपन को जन्म देता है।
(iv) सामाजिक एवं धार्मिक कार्य (Social and Religious Activities): मानव अपने जीवन में विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक उत्सव जैसे शादी-विवाह, धार्मिक एवं सांस्कृतिक अवसरों पर शोर उत्पन्न करता है। मंदिरों में पूजा-अर्चना, भजन कीर्तन के समय भी लाउडस्पीकर को उच्चतम स्तर पर सुनाया जाता है जो हानिकारक है।
(v) अन्य स्रोत (Other Sources): इसके अतिरिक्त सड़कों और बाजारों, बच्चों के खेलने, चुनाव प्रचार के दौरान, विभिन्न विज्ञापनों द्वारा, राष्ट्रीय पर्वों एवं गणतंत्र दिवस पर, खनन कार्य, बुलडोजर, डायनामाइट से चट्टानों को तोड़ने आदि से उत्पन्न शोर भी प्रदूषण का मुख्य कारण हैं।
शोर प्रदूषण के दुष्प्रभाव (Harmful Effects of Noise Pollution)
(i) सामान्य प्रभाव (Normal Effects): शोर प्रदूषण के सामान्य प्रभावों में चिड़चिड़ापन, अनिद्रा तथा इससे संबंधित अन्य प्रभाव तथा बोलने में आने वाले व्यवधान (Speech Interference) तथा संबंधित परेशानियां शामिल हैं। अध्ययनों के अनुसार 80 डेसीबल शोर के बीच कुछ समय रहने से सिर दर्द व तनाव रहता है। तनाव अधिक रहने से उच्च रक्तचाप (High Blood Pressure) तथा हृदय रोग उत्पन्न होती है।
(ii) श्रवण पर प्रभाव (Auditory Effect): उच्च शोर से सुनने की क्षमता में कमी आती है तथा बहरापन भी आ जाता है। ध्वनि प्रदूषण के कारण गर्भवती महिलाओं के गर्भस्थ शिशु जन्म से ही बहरे हो सकते हैं। 90 डेसीबल से अधिक होने पर श्रवण क्षमता में कमी की बीमारी हो सकती है।
(iii) मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Effects): शोर मानव के आचरण एवं मानसिक दशाओं पर बहुत जटिल और बहुआयामी प्रभाव डालता है। दैनिक जीवन में अवांछित शोर (Unwanted Noise) सामाजिक तनाव, खीज, चिड़चिड़ापन, मानसिक अस्थिरता, कुंठा, थकान तथा पागलपन जैसे दोषों का कारण माना जाता है। ध्वनि प्रदूषण से रक्त वाहिकाएं फैल जाती हैं जिससे तीव्र सिर दर्द रहने लगता है। शोर के वातावरण में रहने वाले बच्चों के नर्वस सिस्टम पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
(iv) शारीरिक प्रभाव (Physical Effects): शोर प्रदूषण का प्रभाव मानव की शारीरिक क्षमता पर भी पड़ता है। इससे भावुक लोगों में घबराहट, हृदय रोग, रक्तचाप, चिड़चिड़ापन एवं अन्य घातक बीमारियां हो जाती हैं। 80 डेसीबल के शोर के बीच रहने से सिर दर्द होने लगता है। 150 डेसीबल का शोर मस्तिष्क को नष्ट कर देता है। 180 से 200 डेसीबल शोर में मृत्यु भी हो सकती है।
शोर प्रदूषण का नियंत्रण (Control of Noise Pollution)
हमारे जीवन में शोर प्रदूषण इस सीमा तक बढ़ गया है कि उसे पूर्ण रूप से दूर करना कठिन कार्य होगा, किंतु प्रभावी नियंत्रण द्वारा इसकी तीव्रता को कम किया जा सकता है। इसके लिए सामान्य उपाय, कुछ तकनीकी परिवर्तन तथा सामान्य व्यवहार में परिवर्तन आवश्यक हैं। कुछ उपाय शोर प्रदूषण को नियंत्रित करने में सहायक हो सकते हैं, जो इस प्रकार हैं:
- शोर के उत्पन्न स्थान पर ही इसे नियंत्रित किया जाये। इसके लिए सामान्य उपायों के साथ कानूनी सहायता भी ली जा सकती है। भारत में 80 डेसीबल से अधिक शोर करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जाती है।
- अधिक शोर प्रदूषण करने वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों को आबाद क्षेत्र से दूर स्थापित किया जाये।
- औद्योगिक क्षेत्रों में उच्च तकनीक विकास द्वारा विकसित यूनिटें तथा शोर-निरोधक मशीनों का उपयोग किया जाये। मशीनों के चारों ओर शोर अवशोषक दीवारें तथा मफलर लगाएं जाएं। पुराने मशीनों का नियमित रख-रखाव तथा आवश्यक होने पर नवीन मशीनों का उपयोग करें।
- नगर क्षेत्रों में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त शोर के स्तर को निर्धारित किया जाये। शोर स्तर अधिक होने पर नियंत्रण की व्यवस्था की जाये।
- मोटर वाहनों में अत्यधिक शोर करने वाले हॉर्न बजाने पर प्रतिबंध लगाया जाये।
- भारी माल ढोने वाले वाहनों को शहरों के बाहर मुक्त सड़कों पर चलाने की अनुमति दी जाये तथा आवासीय एवं भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में इन्हें प्रवेश प्रतिबंधित किया जाये।
- रेल का हॉर्न एवं इंजन की आवाज़ भी नियंत्रित होनी चाहिए। बॉलास्टलेस रेल पथ का निर्माण करना आवश्यक है।
- हवाई जहाजों द्वारा उत्पन्न उच्च ध्वनि भी असहनीय होती है। अतः इस दिशा में उच्च तकनीकी विकास द्वारा शोर नियंत्रण के प्रयास करने चाहिए।
- अधिक मात्रा में शोर उत्पन्न करने वाले उद्योगों में काम करने वाले व्यक्तियों को कान की सुरक्षा के लिए इयरप्लग्स (Ear plugs) तथा इयर मफ्स (Ear muffs) का उपयोग करना चाहिए।
- जेट विमान के शोर को कम करने के लिए टर्बोजेट ईंधन के इंजनों पर शोर अवशोषक का उपयोग किया जाता है।
- विभिन्न आवासीय, कार्यालय, पुस्तकालय, चिकित्सालय आदि में उचित निर्माण सामग्री और उपयुक्त बनावट द्वारा शोर नियंत्रण किया जा सकता है।
- विभिन्न देशों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर शोर नियंत्रण के प्रयास किए जाने चाहिए। सरकार को जल तथा वायु प्रदूषण के समान शोर प्रदूषण के लिए भी उपयुक्त कानून बनाकर जनचेतना बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। इस दिशा में भारतीय मोटर वाहन अधिनियम, 1988 महत्वपूर्ण है, जो 1 जुलाई 1989 से प्रभावी हुआ।
उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त मंतर तथा संगीत भी इसके दुष्प्रभाव को कम करते हैं। यूरोप के डॉ. हंस जेनी ने ध्वनि तरंगों के इस प्रकार के प्रभावों का अध्ययन किया है। इसे ‘सिमेटिक्स’ कहते हैं। उन्होंने यह खोज की है कि ‘ओम’ जैसे मंत्रों का बार-बार जप करने से तनाव कम होता है तथा वह व्यक्ति को विश्राम एवं आनंद की अनुभूति कराता है।